प्रवासी दुनिया से साभार-

बधिर लोगों की मांगे हमे सुननी होगी…(23 सितम्बर, बधिर दिवस पर विशेष)




नई दिल्ली। प्रत्येक व्यक्ति में असीम सम्भावनाएं होती हैं। जरूरत होती है उन्हें थो़डा निखारने और उन्हें एक एक सही दिशा देने की। यह अलग बात है कि शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्ति सहयोग न मिलने पर सामान्य व्यक्ति से पिछ़डा हुआ महसूस करता है लेकिन सामाजिक, आर्थिक और मानसिक सहयोग प्रदान कर उन्हें समाज की मुख्यधारा से जो़डा जा सकता है।

कुछ इसी उद्देश्य को लेकर विश्व बधिर संघ (डब्ल्यूएफडी) ने वर्ष 1958 से विश्व बधिर दिवस की शुरूआत की। इस दिन बधिरों के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक अधिकारों के प्रति लोगों में जागरूकता उत्पन्न करने के साथ-साथ समाज और देश में उनकी उपयोगिता के बारे में भी बताया जाता है। संयुक्त राष्ट्र से मान्यता प्राप्त इस गैर सरकारी संगठन के इस समय 130 देश सदस्य हैं। समय-समय पर आयोजित होने वाले सम्मेलनों में बधिरों के कल्याण के लिए योजनाओं के बारे में चर्चा की जाती है।

डब्ल्यूएफडी के आंक़डों के अनुसार विश्व की करीब सात अरब आबादी में बधिरों की संख्या 70 लाख के आस पास है। इस संख्या का 80 फीसदी विकासशील देशों में पाया जाता है। भारत की बात करें तो 2001 के आंक़डों के अनुसार देश की एक अरब आबादी में बधिरों की संख्या 13 लाख के आसपास है। बधिरों की शिक्षा तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान के तहत विशेष रूप से प्रशिक्षित अध्यापकों की नियुक्ति की है। इसके अलावा बधिरों को आर्थिक रूप से सबल बनाने के लिए व्यवसायिक प्रशिक्षण की भी व्यवस्था की गई है।

बधिर दिवस के मौके पर लोगों में जागरूकता उत्पन्न करने के लिए 23 सितम्बर को दिल्ली में इंडिया गेट से जंतर मंतर तक मार्च का आयोजन किया जा रहा है। केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता मंत्रालय बधिरों के कल्याण के लिए काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों को भी दीन दयाल उपाध्याय योजना के तहत सहायता भी मुहैया करा रहा है। साथ ही बधिरों को नौकरी देने वाली कम्पनियों को छूट का भी प्रावधान है।

बधिरों के लिए काम करने वाले गैर सरकारी संगठन “नोएडा डेफ सोसायटी” की रूमा रोका ने कहा, “”सबसे ब़डी समस्या जागरूकता का अभाव है। हमारे यहां व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए आने वाले अधिकतर बच्चो देश के पिछ़डे इलाकों से आते हैं। समाज के पिछ़डे तबकों से सम्बंधित इनके अभिभावकों में जागरूकता एवं सुविधाओं के अभाव के कारण इन बच्चों के पास मूलभूत ज्ञान का अभाव होता है।”"

इस विषय पर नोएडा जिला अस्पताल में कान, नाक एवं गला के चिकित्सक डॉ पी. के. सिंह ने कहा, “”प्रदूषण के कारण धीरे-धीरे बहरापन महामारी का रूप चुका है। कोई प्रत्यक्ष लक्षण न दिखने के कारण इस ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है।”" देश में बहरेपन के उपलब्ध इलाज पर असंतोष जताते हुए डॉ सिंह ने कहा, “”रोगी-चिकित्सक अनुपात अमेरिका में 160 पर और ब्रिटेन में 500 पर एक का है। जबकि भारत में यह अनुपात सवा लाख पर एक चिकित्सक का बैठता है। सरकारी अस्पतालों में भी सुविधाओं की कमी है।”" पिछ़डे इलाकों में यह अंतर और भी ज्यादा है। योग्य चिकित्सकों की कमी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कान के आपरेशन के लिए दिल्ली के प्रतिष्ठित भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में छह-छह महीने की प्रतीक्षा सूची है। सिंह ने बताया कि बधिर लोगों के लिए सुनने में सहायता देने वाले उपकरण (हियरिंग एड) की कम से कम कीमत 15,000 रूपये है, जो सामान्य लोगों की पहुंच के बाहर है। दूसरी तरफ सरकारी प्रयास भी इस दिशा में नाकाफी सिद्ध हो रहे हैं। आज भी महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्थानों जैसे रेलवे एवं बस स्टेशन पर इन लोगों की सहायता के लिए किसी भी प्रकार की व्यवस्था नहीं है।

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