.सलोनी की गुडिया
(कविता)
हीरे की कनी है सलोनी
उसकी आँखें बोलती हैं
और मुस्कान से खिल जाते हैं फूल
उसके हाथ मे हैं जादू
माँ ने सिखाया है उसे अँगुलियाँ चलाना
कैनवस कैसा भी हो
वो भरती है जीवन के रंग
फिर वो चित्र बोलते हैं
बनाती है गुडिया अपने जैसी
गुडिया की कजरारी आँखें तो कमाल हैं
टाँकती है सलमा सितारे
सलीके से काढती है उसकी ड्रेस
दिल्ली हाट मे जायेगी उसकी गुडिया
और वो झूमेगी उसे देखकर
करेगी इशारे अँगुलियो से
नाचेगी अपनी धुन मे
उसे बोलना नही आता
आवाज की दुनिया से नही है उसका नाता
प्रशंसा और निन्दा सब समान है उसके लिए
गुडिया के अलावा
नही है कोई सहेली
न घर में न पडोस में
न पाठशाला मे
बस गुडिया और पेंटिंग
पेण्टिंग और गुडिया के साथ
रहती है सलोनी गुमसुम-एकरस
मूकबधिर कठपुतली की तरह
*भारतेन्दु मिश्र
टिप्पणियाँ
दोनों एकसाथ !!
काश कि सलोनी आँखों के साथ जुबां से भी बोल सकती....!!
वो भरती है जीवन के रंग
क्या हुआ जो सलोनी ख़ुद नहीं बोलती.. बेजान चित्रों को तो जानदार बना देती है.. वो नहीं बोलती लेकिन उसके चित्र, उसके सलमे सितारे वाली गुड़िया तो बोलती है... बहुत सुन्दर रचना